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शुली के पथ पर
सेठ सत्य ही कहता है,
यह भेद खोलना ठीक नहीं । मेरे मत से भी यह घटना,
जा पहुँचेगी और कहीं ॥
श्रेष्ठ वंश चंपा का भ्रमवश,
नष्ट - भ्रष्ट हो जाएगा । हा ! अबोध बालक, गृहणी,
सब परिजन रुदन मचाएगा ॥
प्राण-दंड है घोर दंड,
कुछ सोच-समझ कर काम करें । क्या परिणाम आखिरी होगा,
कुछ तो दिल में ध्यान धरें ॥"
राजा आँखें लाल-लाल कर,
क्रोध - विकल होकर गरजा । "रहने दे बस शिक्षा अपनी,
मेरे आगे से हट जा ॥
न्याय निपुण बनता है खुद तो,
मुझको मूर्ख समझता है । वक्त और वेवक्त धर्म का,
पुच्छल पकड़े फिरता है ॥
तुझमें आदत बड़ी निकम्मी,
नहीं कभी भी टलता है। जब भी मैं कुछ काम करूँ,
तब तू ही केवल अड़ता है ।
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