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धर्म-वीर सुदर्शन केवल जड़ तन पर, या कुछ,
मुझ पर भी असर जमाएगी । अजर अमर हूँ सदा सर्वदा,
मरा न अब मर सकता हूँ । त्यागे देह अनन्त आज भी,
समुद त्याग कर सकता हूँ ॥" "ले चलो दोस्तो ! शीघ्र वहीं,
उस स्वर्गारोहण के पथ पर । पापभरी दुनियाँ से निकलूँ,
अमर शान्ति अवलंबन कर ॥" राजा उत्तर दे न सका कुछ,
हुआ खूब ही खिसियाना । देख अटल गंभीर सेठ को,
दिल में अति अचरज माना । इसी बीच श्रीयुत मतिसागर,
मंत्री सम्मुख आया है। हाथ जोड़कर विनय सहित,
नृप - चरणों शीश झुकाया है ॥ “देव ! हृदय में सोचें तो कुछ,
यह क्या पाप कमाते हैं ? अंगराष्ट्र के प्राण सेठ को,
शूली आप चढ़ाते हैं ॥ मैंने परख लिया बातों से,
नहीं सुदर्शन दोषी है । तेजस्वी, निर्भीक, साहसी,
होता कभी न दोषी है ॥
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