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धर्म-वीर सुदर्शन काम-मत्त हो कर के तूने,
कैसे की मन-चीती
है ॥"
सेठ सुदर्शन ने निज मन में,
सोचा "समय भयंकर है ! अपने मुख से भेद खोलना,
नहीं अभी श्रेयस्कर है। व्यर्थ सफाई देने से कुछ,
भी न स्पष्ट हो पाएगा । गुप्त सत्य है, कौन मनुज,
विश्वास - भावना लाएगा ? अपने मुख से अपनी शुचिता,
कभी न शोभा देती है । आता है जब समय स्वयं,
वह निज को चमका देती है ॥
रानी को मैंने वास्तव में,
__ मातृ - स्वरूप निहारा है । और निजानन से माता,
कर कर सस्नेह पुकारा है ॥ जिसको माता कहा उसी के,
__ प्रति गन्दी वाणी बोलूँ । मारी जाएगी बेचारी,
गुप्त भेद यदि मैं खोलूँ ॥"
मन्द-स्मित निर्भय यों बोला,
__ "राजन् ! मैं क्या
बतलाऊँ ?
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