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________________ शूली के पथ पर तू तो पक्का दृढ़ धर्मी वर, भक्तराज बन अपने आगे सारे जग को, पापी नीच राजहंस के विमल वेष में, कौवा मक्कारी सदाचार का एक न कण भी, घोर दुराचारी क्या तू उस दिन इसी कर्म पर, मुझको ज्ञान धर्मगुरू बन शिक्षा के मिस, ताने मुझे तेरा इतना दुःसाहस, अन्तःपुर में घुस आया, समझता था ॥ Jain Education International जो मेरी भी परवा न करी । मुझको क्या था पता दुष्ट तू, इसी हेतु यहाँ आज्ञा लेकर धर्म - क्रिया की. यों छलछन्द क्या जाने, किस-किस नारी को, तूने गुप्त रूप से दीन प्रजा पर, फिरता था । खुद रानी से भी छेड़ करी ॥ बतलाते सब सत्य - सत्य, सिखाता था । सुनाता था ॥ निकला । निकला ॥ भ्रष्ट किया होगा ? ७० रहता है । विरचता है | क्या-क्या जुल्म किया होगा ? जो कुछ भी घटना बीती है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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