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सर्ग आठ
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शूली के पथ पर
सेठ सुदर्शन का मधुर, अमृतमय उपदेश, अभया को विषमय हुआ, देखा पापावेश ।।
रानी भड़क उठी यह सुनकर,
नहीं क्रोध का पार रहा । तार-तार हो गई हिताहित,
का न जरा सुविचार रहा ।। "झूठे भ्रम में फँस कर मैंने,
निज व्यक्तित्व गँवाया है । बना न कुछ भी काम व्यर्थ ही,
परदा - फाश कराया है । प्रातःकाल हुआ है, कैसे,
अब निज लाज बचाऊँगी ? सूर्योदय होने वाला है,
कैसे इसे छुपाऊँगी ? जालिम ने मम आशाओं पर,
बिल्कुल पानी फेर दिया । मैं अभया क्या, अगर इसे अब, .
यों ही जीवित छोड़ दिया ।"
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