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अग्नि-परीक्षा
अच्छी और बुरी करनी का,
मिलता है फल सदा खरा ॥
जिसन
भोग-वासना में फँसने को,
मिला नहीं नर - तन प्यारा । जीवन सफल बनाया उसने,
जिसने शील रत्न धारा ॥ मैंने तो जब से इस जग में,
कुछ - कुछ होश सँभाला है। माता और बहन सम,
पर नारी को देखा-भाला है ॥ मुझसे तो यह स्वप्न तलक,
में भी आशा मत रखिएगा । तैल नहीं है इस तिलतुष में,
चाहे कुछ भी करिएगा । स्वयं स्वर्ग से इन्द्राणी भी,
पतित बनाने आजाए । तो भी वज्र-मूर्ति-सा मेरा,
मन - मेरु न डिगा पाए । पाप कर्म के फल से मैं तो,
प्रति पल ही भय खाता हूँ। और तुम्हें भी माताजी !
बस यही भाव समझाता हूँ॥"
मत पीवे पियाला विषय रस का! काम-वासना जहर हलाहल,
नाश करे सुकृत रस का ।
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