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________________ अग्नि-परीक्षा अच्छी और बुरी करनी का, मिलता है फल सदा खरा ॥ जिसन भोग-वासना में फँसने को, मिला नहीं नर - तन प्यारा । जीवन सफल बनाया उसने, जिसने शील रत्न धारा ॥ मैंने तो जब से इस जग में, कुछ - कुछ होश सँभाला है। माता और बहन सम, पर नारी को देखा-भाला है ॥ मुझसे तो यह स्वप्न तलक, में भी आशा मत रखिएगा । तैल नहीं है इस तिलतुष में, चाहे कुछ भी करिएगा । स्वयं स्वर्ग से इन्द्राणी भी, पतित बनाने आजाए । तो भी वज्र-मूर्ति-सा मेरा, मन - मेरु न डिगा पाए । पाप कर्म के फल से मैं तो, प्रति पल ही भय खाता हूँ। और तुम्हें भी माताजी ! बस यही भाव समझाता हूँ॥" मत पीवे पियाला विषय रस का! काम-वासना जहर हलाहल, नाश करे सुकृत रस का । - ८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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