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धर्म-वीर सुदर्शन फिर भी रानी को समझा,
सत्पथ पर लाना चाहा है । पतन-गर्त में गिरने से,
अविलम्ब बचाना चाहा है। "माता जी ! श्री मुख से यह,
क्या गंदा जहर उगलती हैं । शान्त हृदय विक्षुब्ध हुआ है,
रग - रग मेरी जलती हैं । नृप-पत्नी जनता की माता,
शास्त्र गवाही देता है । यह दूषित प्रस्ताव आपके,
मुख शोभा कब देता है ॥ कामवासना-पूर्ति चाहती,
हो पुत्रों द्वारा कैसे ? पशुओं जैसा अधमाधम,
यह कृत्य तुम्हें भाया कैसे ? यदि इस भाँति राजवंश की,
ललनाएँ भी डूबेंगी ? तो कैसे जग इतर नारियाँ,
शील धर्म पर झूमेंगी ? दूराचार के पतन मार्ग चढ़,
पाप भार क्यों ढोती हैं । क्षणिक सुखों के लिए
पति-व्रत धर्म अमोलक खोती हैं ॥ स्वर्ग-नरक का कथन सत्य है,
नहीं झूठ का अंश जरा ।
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