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धर्म-वीर सुदर्शन
तब से ही मम हृदय - भवन में,
प्यारा नाम
रंभा के द्वारा मैंने ही, तुम्हें यहाँ मनोवासना-पूर्ति-हेतु यह,
राजाजी हैं गए आज,
उपवन
आजादी के साथ सुअवसर,
राजा का या और किसी का,
सारा साज सजाया
रानी
रानी के वचनों से कुछ भी, नहीं सुदर्शन ध्यान-मग्न पहले जैसा ही,
खुद
पाया तुमसे मिलने
दासी की चिर अभिलाषा, निःशंक पूर्ण अब
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बैरागी मुख - चन्द्र - बिम्ब पर, नहीं विकृति हतप्रभ सी हो,
मन ही
मन
समाया
बुलवाया
में क्रीड़ा करने को ।
को ॥
-
भय न हृदय में रखिएगा ।
करिएगा ॥"
रहा, न चंचल चित्त
हाव-भाव के साथ विलासी,
खुल्लम-खुल्ला नग्न,
-
था ॥
है
है ॥
सिक्त हुआ ।
हुआ ||
छाया
आई ।
में शरमाई ॥
वचनों से फिर भी बोली ।
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वासनाओं की विष - गठरी खोली ॥
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