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धर्म-वीर सुदर्शन सब के आगे से ही निधड़क,
राज महल में पहुँच गई । भंडा-फोड़ हुआ न बीच में,
निर्भयता की सांस लई ।। पहले से ही निश्चित था जो,
पूर्ण सुसज्जित शयनागार । कण-कण में फैल रही थी,
जहाँ विषय वासनाओं की धार । बैठा सेठ सुदर्शन को वह, ।
रानी से जाकर बोली । “कीजे भेंट सुदर्शन से अब,
भर लीजे सुख की झोली ॥ मैंने तो निज कार्य पूर्ण,
कर दिया, तवाज्ञा पाली है। आगे तुम वह महल खड़ा,
___ करलो कि नींव जो डाली है ॥"
रानी अपने चित्त में, हर्षित हुई अपार, चली शयन-आगार को, सज सोलह श्रृंगार । रूप मनोहर खिल उठा, इन्द्राण अनुहार, झलमल झलमल हो रही, शोभा का क्या पार ?
रक्खा पैर भवन में ज्यों ही,
दृश्य और का रंग रूप रानी का मोहकता में,
मोहक और
और हुआ ।
हुआ ॥
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