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________________ धर्म-वीर सुदर्शन शीतलतम रजनी ने आकर, उष्ण दिवस का स्थान लिया ॥ शुद्ध हृदय से पाप-पंकहर, प्रतिक्रमण विधि से शास्त्र रीति से कृत पापों का, प्रायश्चित विधि से प्रतिक्रमण से निबट जिनेन्द्र, स्तुति का पथ अभिराम गहा । भक्ति - सुधा की सुर सरिता का, कलिमलहरण प्रवाह वीर प्रभू के श्री चरणों में, नम्र प्रार्थना करता स्वार्थ-रहित सुविशुद्ध भक्ति का, रूपक प्रस्तुत करता जीवन सफल बनाना, बनाना, प्रभु वीर जिनराज जी ! मन-मन्दिर में घुप है अँधेरा, धधक रहा है द्वेष दवानल, Jain Education International भोग- वासना दाह लगी है, कीना । लीना ॥ ज्ञान की ज्योति जगाना, जगाना प्रभू० ! अगम भँवर में नैय्या फँसी है, प्रेम की गंगा बहाना, बहाना प्रभू० ! बहा ॥ अन्तर- तपत बुझाना, बुझाना प्रभू० ! ५१ For Private & Personal Use Only है । है ॥ झट-पट पार लगाना, लगाना प्रभू० ! www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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