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धर्म-वीर सुदर्शन
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प्रथम द्वार पर प्रहरी ने,
रोका, “क्या ले जाती है ? मस्तक पर क्या बला रखी है ?
मुझको क्यों न दिखाती है ?" रंभा बोली “तुझे मूढ़ !
कुछ पता नहीं है, मैं क्या हूँ ? राजमहल की एक मात्र,
विश्वास-पात्र मैं बाला हूँ।
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करती
हैं।
रानी जी इन दिनों वैश्रमण,
देव - अर्चना भक्ति-भाव से भेंट चढ़ाकर,
पुत्र कामना
करती
हैं
।
एतदर्थ रानीजी ने यह,
देव - मूर्ति मँगवाई है। वस्त्र-ढकी ही ले जानी है,
___अस्तु नहीं दिखलाई है ॥ आज्ञा जैसी मिली मुझे है,
करके वही निभाऊँगी । चाहे कुछ भी करले मूरत,
बिल्कुल नहीं दिखाऊँगी ॥" द्वारपाल ने कहा--"व्यर्थ ही
रंभा ! तू हठ करती है । राज का है हुक्म, बिना देखे,
कैसे जा सकती है ।
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