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अभया का कुचक्र
हा खुशामद ने दिया तखता पलट संसार का,
रात्रि में रवि, दिन में तारागण, उगाते आजकल । आएगा वह भी समय मिट जाएगा दुनियाँ से खोज;
झूठ की वंशी "अमर" हँस-हँस बजाते आजकल ।।
रंभा ने सब काम छोड़,
अब यही काम अपनाया है । नित नई कल्पना करती है,
चिन्ता का चक्र चलाया है ॥ "राजमहल पर पहरा है,
किस तरह सेठ को ले आऊँ ? कठिन समस्या अड़ी खड़ी है,
कैसे इसको सुलझाऊँ ?" बैठी थी एकान्त अचानक,
यह विचार मन में आया । रंभा के मूर्छित मानस में,
स्पन्दन का दौरा आया ॥ दौड़ी गई उसी दम जाकर,
मूर्तिकार से बतलाई । सेठ सुदर्शन की सुन्दर,
मिट्टी की मूरत बनवाई ॥ लाल वस्त्र से ढक मस्तक रख,
राजद्वार पर आई है । द्वारपालकों के ठगने को,
कैसी बुद्धि लड़ाई है ॥
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