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________________ अभया का कुचक्र हा खुशामद ने दिया तखता पलट संसार का, रात्रि में रवि, दिन में तारागण, उगाते आजकल । आएगा वह भी समय मिट जाएगा दुनियाँ से खोज; झूठ की वंशी "अमर" हँस-हँस बजाते आजकल ।। रंभा ने सब काम छोड़, अब यही काम अपनाया है । नित नई कल्पना करती है, चिन्ता का चक्र चलाया है ॥ "राजमहल पर पहरा है, किस तरह सेठ को ले आऊँ ? कठिन समस्या अड़ी खड़ी है, कैसे इसको सुलझाऊँ ?" बैठी थी एकान्त अचानक, यह विचार मन में आया । रंभा के मूर्छित मानस में, स्पन्दन का दौरा आया ॥ दौड़ी गई उसी दम जाकर, मूर्तिकार से बतलाई । सेठ सुदर्शन की सुन्दर, मिट्टी की मूरत बनवाई ॥ लाल वस्त्र से ढक मस्तक रख, राजद्वार पर आई है । द्वारपालकों के ठगने को, कैसी बुद्धि लड़ाई है ॥ - ४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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