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________________ अभया का कुचक्र कार्य आपका सफल करूँगी, ऐसा मन्त्र चलाऊँगी । सेठ सुदर्शन को श्री चरणों पर शीघ्र झुकाऊँगी ॥ झेलूँगी सब कष्ट, प्राण, - अपनों की भेंट चढ़ा दूंगी । 'रंभा तुझे धन्य है' इक दिन, श्री - मुख से कहला लूंगी ॥" रंभा के मधुवचन सुने तो,. अभया का मुख कमल खिला । हर्षमत्त हो नाच उठी, काफूर हुआ सब रंज - गिला ॥ "रंभा ! तू सचमुच रंभा है, जो चाहे कर सकती है । आज विश्व में तू ही मेरा, ___ अखिल दुःख हर सकती है ॥ तू ने ही सब उलझन मेरी, आज तलक . सुलझाई हैं । मन में जो कुछ उठीं कामना, झटपट सफल बनाईं हैं ॥ आशा क्या, निश्चय है, यह भी, __कार्य सिद्ध तुझसे होगा । अब-के भी यश-मुकुट विजय का, तेरे ही सिर पर होगा ॥" कहते-कहते शीघ्र कंठ से, मुक्ता - हार निकाला है । ४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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