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________________ नहीं पता, धर्म - वीर सुदर्शन हो क्या कुछ व्यर्थ बुद्धि भ्रष्ट हो गई सर्वथा, काम-ज्वर का भाग्य - सूर्य छिप गया हन्त ! दुर्भाग्य तमस् जाए, सताई मुझे पड़ी क्या, यही स्वयं, अन्दर है पाप प्रगट जब होगा तब, Jain Education International निज करनी का फल पाएगी । पारतन्त्र्य के पाश फँसी हूँ, शिक्षा का दासी तो गूँगी होती है, जिह्वा की दिल मसोस गिर पड़ी चरन में, कर मल-मल के पछताएगी ॥ बोल-चाल का ढंग न मुझको, जोर रंभा तो चरणों की चेरी, कपट - नम्र हो यों बोली । “क्षमा करें अपराध स्वामिनी ! मैं दासी 'अथ इति' भोली || - हुआ । घनघोर हुआ || जाऊँगी ॥ कैसे तुमसे अलग हो सके, पूर्णतया ४१ अधिकार कहाँ । कहाँ ?" झनकार ठीक तौर से आता है । कुछ और भाव, पर निकल और ही जाता है । जन्म जन्म की दासी है । विश्वासी है ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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