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नहीं पता,
धर्म - वीर सुदर्शन
हो
क्या कुछ व्यर्थ
बुद्धि भ्रष्ट हो गई सर्वथा,
काम-ज्वर का
भाग्य - सूर्य छिप गया हन्त ! दुर्भाग्य तमस्
जाए,
सताई
मुझे पड़ी क्या, यही स्वयं,
अन्दर है
पाप प्रगट जब होगा तब,
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निज करनी का फल पाएगी ।
पारतन्त्र्य के पाश फँसी हूँ, शिक्षा का
दासी तो गूँगी होती है, जिह्वा की दिल मसोस गिर पड़ी चरन में,
कर मल-मल के पछताएगी ॥
बोल-चाल का ढंग न मुझको,
जोर
रंभा तो चरणों की चेरी,
कपट - नम्र हो यों बोली । “क्षमा करें अपराध स्वामिनी !
मैं दासी 'अथ इति' भोली ||
-
हुआ ।
घनघोर हुआ ||
जाऊँगी ॥
कैसे तुमसे अलग हो सके,
पूर्णतया
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अधिकार कहाँ ।
कहाँ ?"
झनकार
ठीक तौर से आता है । कुछ और भाव,
पर निकल और ही जाता है ।
जन्म जन्म की दासी है ।
विश्वासी है ॥
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