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अभया का कुचक्र
मानवी चोला मिला सत्कर्म से, भ्रष्ट क्यों करतीं भला दुष्कर्म से;
लीजिए, जग में भलाई आज दिन ! अरी तू देती मुझे क्या ज्ञान ? रंभा ! तेरी कैंची से भी, चलती अधिक जबान ! मालिक से किस भाँति बोलना, तुझे नहीं कुछ भान; झूठा ज्ञान छोंकने में ही, रहती नित गल्तान ! धर्म-धर्म की मचा दुहाई, व्यर्थ फोड़ती कान; मुझको बिल्कुल पतित समझती, बनती खुद गुणवान ! मेरा कार्य नहीं प्रिय तुझको, प्यारे हैं निज प्रान, व्यर्थ धर्म की आड़ लगा कर, करती मम अपमान ! धर्म-कर्म कुछ नहीं, ढोंग है, मात्र अतथ्य बितान, जो कुछ भी है सभी यहीं है, आगे है सुनसान ! चुपके से यह कार्य बनादे, कहना मेरा मान; देख अन्यथा मैं अभया हूँ, भूलेगी सब शान ! नहीं जानती कहने भर से, क्या होगा तूफान; खाल खिंचा भुस भरवा दूंगी, रोएगी नादान, सेठ-वेठ क्या चीज बिचारा, भूले झठ औसान; नारी मोहन मन्त्र अजब है, मोहित हों भगवान ! मत भय कर तू किसी बात का, निर्भय कारज ठान; राजा मेरी मुट्ठी में है, नहीं उसे कुछ ध्यान !
रंभा ने अभया रानी का,
कोप - पूर्ण वक्तव्य सुना । चूंट जहर की कड़वी पीकर,
मौन शान्ति का मार्ग चुना ॥ समझा मन में, “अगर इसे कुछ,
और अधिक समझाऊँगी ।
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