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धर्म-वीर सुदर्शन रानी की यह सुनी जहर से,
भरी बात तो चौंक पड़ी । भूल गई सुध बुध सब,
सहसा बिजली जैसे शीश पड़ी ॥ हाथ जोड़कर विनय भाव से,
बोली रंभा दृढ़ता धार । स्पष्ट रूप से कहे, स्वयं के,
मन के जो थे शुद्ध विचार ॥
राज-रानी ! क्या समाई आज दिन ! बात गंदी क्या सुनाई आज दिन ! आप तो विदुषी बड़ी धीमान हो, सोचिए, ऐसा कि जग-सम्मान हो; लोक-लज्जा क्यों हटाई आज दिन ! शील में आदर्श हैं हम को तुम्हीं, मूर्ति हैं प्रत्यक्ष पतिव्रत की तुम्हीं; क्यों सहज शुचिता गँवाई आज दिन ! सेठजी हैं धर्म पर अपने अटल, मन्दराचल-तुल्य हैं मन से अचल; शील की धूनी रमाई आज दिन ! लाख कीजे यत्न डिगने की नहीं, प्राण देगा, धर्म तजने का नहीं: व्यर्थ क्यों करती हँसाई आज /देन ! भूप सुन पाएँ, करें मिट्टी खराब, प्राण शूली पर चढ़े, क्या है बचाव, बात बेढंगी उठाई आज दिन ! काम यह मुझसे कभी होगा नहीं, साफ कहती हूँ, जरा धोखा नहीं; जुल्म से चाहूँ रिहाई आज दिन !
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