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सर्ग पाँच
अभया का कुचक्र
अभया अपने आप ही, करती है क्या काम, होती है मति अति विकल, होता जब विधि वाम।
"रंभा ! तेरी चतुराई की,
आज परीक्षा होनी है । अन्तर्मन की विरह वेदना,
सखी ! तुझे ही खोनी है ॥ सेठ सुदर्शन की रूपच्छवि,
मोहक हृदय समाई है । कैसे मिलूँ, करूँ क्या, तन की,
मन की सुध बिसराई है ॥ एक बार सेठ को कैसे भी,
हो यहाँ लाना होगा । चाहे कुछ हो, पार मनोरथ
सागर के जाना होगा । कोई चाल चला ऐसी,
जो कार्य शीघ्र ही बन जाए । और साथ ही इस छल-बल,
का भेद नहीं खुलने पाए ॥"
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