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धर्म-वीर सुदर्शन स्वाभिमान कपिला का इतना,
सुनकर सहसा चटक उठा । बोली अभया से तन मन में,
रोष हुताशन भड़क उठा ।
इतराएँ ।
"रानी जी ! निज चतुराई पर,
अभी न इनता ताने मार-मार कर मत यों,
दीन ब्राह्मणी
कलपाएँ ।
मैं विमूढ़ हूँ, मेरे वश में,
नहीं पुरुष हो सकते हैं । किन्तु आपके चरणों में तो,
सुर भी नत हो सकते हैं ॥
अगर शक्ति है, मुझको भी,
कुछ चमत्कार दिखला दीजे । सेठ सुदर्शन को वश में कर,
मेरा भी बदला लीजे ॥
क्षत्राणी उस दिन ही मैं भी,
तुमको असली हृदयहीन को जब कि तुम्हारा,
प्रेम - भिखारी
समझूगी ।
देखुंगी ॥
नारी-जग की लाज कृपा,
करके अब तुम ही रखिएगा । अभिमानी धर्मान्ध सेठ को,
___ शीघ्र पराजित करिएगा ॥"
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