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संकट का बीजारोपण
दासी का कहना सच्चा है, है
न
शील धर्म की रक्षा के हित, मार्ग झूठ का
वस्तुतः वह हिजड़ा ।
महाशक्ति का जग में नारी,
अवतार
दृढ़ अखिल सृष्टि के पुरुषों को,
मन चाहा
आती है जब अपने पर, तो ऐसा जाल मानव तो क्या, देवों तक की, बुद्धि भ्रष्ट हो
वणिक - पुत्र भी नहीं फँसाया,
नाच
विश्व - मोहिनी ललनाओं का, डूबा गौरव
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नहीं बन सका कार्य, व्यर्थ ही, तूने लाज
वणिक - चक्र में उलझ गई, बदनामी बुरी
माल मुफ्त का मरे गलों का,
दान-पुण्य के भोजन से.
जीवन
था
गया जाल में हा तुझसे ?
तुझसे ॥
३४
ह
नचाती है ॥
पकड़ा ॥
बिछाती है ।
ज है ॥
हा
बड़ी मौज से खाती है ।
गँवाई है ।
कमाई है ॥
निस्तेज बनाती है ॥”
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