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धर्म-वीर सुदर्शन आँखों में सौन्दर्य सुधा से,
___ ठंडक-सी भर देता है । देखा ऐसा रूप आज तक,
नहीं किसी भी नारी का । स्वर्ण-मूर्ति सी राज रही,
__कुछ पार नहीं छवि प्यारी का ॥ चन्द्र-बिम्ब-सम मुख-मंडल पर,
दिव्य मधुरिमा टपक रही । अंग-अंग पर ललित लुनाई,
सुघड़ाई है झलक रही ।। अहा, इधर भी अजब-गजब की,
मनमोहक छवि छाई है। बाल-युगल में अखिल विश्व की,
रूप - राशि भर आई है ॥ कैसी सुन्दर अभिनव जोड़ी,
सूर्य-चन्द्र - सी लगती है। जग-प्रसिद्ध नल-कूबर की,
जोड़ी-सी असली लगती है। तप्त स्वर्ण-सा कान्तिमान,
तन पूर्णतया है गठा हुआ । मन्दहास्य-युत आनन है,
अरविन्द कमल-सा खिला हुआ । बाल्य काल की प्रकृति-चपलता,
रंग में रंग बरसाती है । रूप-राशि में अपनी कुछ, .. .
अभिनव ही छटा दिखाती है।
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