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________________ - - - धर्म-वीर सुदर्शन शिक्षा दे रहा है, जग को, ऋतु बसन्त हितकारी ! वृक्षों ने पतझड़ में पहले त्यागी सुषमा सारी; नयनाकर्षक शोभा के फिर बने शीघ्र अधिकारी। फूलों-जैसा जीवन रचिए, बनिए पर-उपकारी; निर्दय हाथ तोड़ते फिर भी उन्हें सुरभि दें भारी। आम्र-मंजरी खाकर कोयल बोले वाणी प्यारी; सन्तों के वचनामृत पीकर बनो सरस गुण-धारी । सद्गुणशाली सज्जन जो भी मिल जाएँ अविकारी; सुरभित सुमनों पर मधुकर-सम रखो भाव प्रिय-कारी । पुष्पफलान्वित तरु-शाखाएँ झुकती नम्र बिचारी; 'अमर' बड़प्पन पाकर सीखो झुकना सब नर-नारी । भारत में प्राचीन काल से, __ प्रथा चली यह आती है । आये वर्ष वसन्तोत्सव में, वन - क्रीड़ा की जाती है ॥ चंपा-वासी नर-नारी भी, समुद वसन्त मनाते हैं। पुष्पारामों में नानाविध, उत्सव रुचिर रचाते हैं। सघन कुंज में कोकिल-कंठी, बाला मधु बरसाती हैं । मंजुल गायन गाती हैं, वीणादि सुवाद्य बजाती हैं । - - - २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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