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________________ अन्धकार के पार "कृपा करें, न किसी से कहना, बात जोकि मैंने खोली ॥" कहा सेठ ने “मेरी भी यह, - गुप्त बात नहीं कहना । दोनों की बातों का अच्छा, .. ... दोनों तक . सीमित रहना ॥" सेठ और कपिला दोनों ने, वचन-बद्धता की स्वीकार । दासी ने भी खोला झट-पट, दरवाजा आज्ञा अनुसार ॥ द्वार खुला तो सेठ सुदर्शन, शीघ्र निकल बाहर आए । सहा घोर अपमान किन्तु, निज - धर्म बचाकर हर्षाए । घर आते ही किया महाप्रण, निज मन में धर भव्य विराग । 'महिलाऽऽमंत्रण से पर-घर पर, ___ एकाकी जाने का त्याग ॥" शान्तिपूर्ण गृह-स्वर्ग लोक में, ठने न कटुता का व्यवहार । कहा सेठ ने नहीं मित्र से, कपिला का कुछ भी कुविचार ॥ सागर-सम गंभीर, सजनों का होता है अन्तस्तल । पी जाते हैं विष भी मधु-सम, चित्त नहीं करते चंचल ।। २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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