________________
धर्म-वीर सुदर्शन
लज्जा-कारण अब तक मैंने,
निज कलीबत्व छिपाया है। भद्रे ! तुम न किसी से कहना,
_ आज भेद खुल पाया है ॥" इतना सुनते ही कपिला तो, ।
बदहवास हो शरमाई। अपनी भोग-मूढ़ता पर,
अन्दर ही अन्दर पछताई ॥ "नहीं बना कुछ कार्य,
व्यर्थ ही परदाफाश हुआ मेरा । हाय ! वासना तूने मुझको,
अन्धकूप में ला गेरा ॥ पीतल कोरा निकला जिसको,
मैने कंचन समझा था । गंध-हीन किंशुक को पाटल,
पुष्प विमोहन समझा था ॥" "चंपा ! खड़ी देखती क्या है ?
खोल झपट कर दरवाजा । बाहर काढ़ पाप को निकला,
कोरा हिजड़ों का राजा ॥" "भद्रे ! क्यों घबराती तुम हो ?
मैं तो खुद ही जाता हूँ । वृथा कष्ट यह हुआ आपको,
इसकी माफी चाहता हूँ॥" कपिला दिल में घबराई,
फिर हाथ जोड़कर यों बोली ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org