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अन्धकार के पार
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ज्यों-ज्यों दा विरह-वेदना,
त्यों-त्यों अधिक उभड़ती है। सेवा में दासी का सब कुछ,
तन - मन अर्पण है, लीजे । निःसंकोच भाव से खुलकर,
पूर्ण स्व - मन - इच्छा कीजे ॥" देख सेठ ने विकट परिस्थिति,
किया हृदय में आलोचन । “काम-विह्वला-नारी को,
किस भाँति करूँ अब उद्बोधन ॥ चाहे कैसा ही समझाऊँ,
___ नहीं समझती दिखती है । ज्यादह अगर रहा यहाँ पर,
तो विकृति बढ़ती दिखती है ॥" शीघ्र-सोच कर बोले-"भद्रे !
मैं क्या अपनी बतलाऊँ ? लज्जा अड़ी खड़ी है सम्मुख,
गुप्त भेद क्या समझाऊँ ॥ परमेश्वर ने मेरे प्रति तो,
बड़ा विकट अन्याय किया । सुन्दरता दी, किन्तु खेद है,
नहीं मुझे पुरुषत्व दिया । मैंने मात्र देखने भर को,
ऊपर नर - तन धारा है। अन्दर से नामर्द जन्म का,
दैव बड़ा हत्यारा है।
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