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धर्म-वीर सुदर्शन दबे साँस से पुरुष-स्वर में,
... गहरी आहे . भरती थी। ज्वर-रोगी सी दशा बनाए,
सिसक-सिसक कर रोती थी । "कहो, मित्र ! क्या हाल," .
सेठ यों पास बैठ बतलाता है । नाड़ी-दर्शन-हेतु हाथ,
चादर में शीघ्र बढ़ाता है । कंकण-भूषित कर छूते ही,
भेद समझ में आया है । मित्र वित्र कुछ नहीं,
मित्र-पत्नी की सारी माया है । पीछे से मुड़कर देखा तो,
बंद द्वार - पट पाया है । कपिला ने भी इतने में,
प्रच्छादन परे हटाया है । लाज-शर्म सब छोड़ सेठ का,
हाथ जोर से पकड़ लिया । हाव-भाव के साथ मनोगत,
संकल्पों को व्यक्त किया । "प्राणनाथ ! मम चित्त आपने, ...
क्यों पागल कर रक्खा है ? दर्शन देकर काम-ज्वर से, . ग्रस्त विकल कर रक्खा है । समझाया दिल को बहुतेरा, . जरा नहीं कल पड़ती है।
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