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धर्म-वीर सुदर्शन दर्शन-भर से ही मन में जो,
बीज प्रेम का बोते हैं । रूप-माधुरीयुत पुरुषों में,
वे ही एक नगीने हैं । पंडितजी तो उनके आगे,
लगते साफ कमीने हैं ॥ जीवन धन्य तभी यह होगा, - जब तू उन्हें मिला देगी । देख, अन्यथा मुझे मौत के,
घाट उतरते देखेगी ॥" ऊँच नीच बहुत-सी बातें,
दासी ने सब समझाईं । काम-विह्वला कपिला के पर,
एक न मस्तक में आई ॥ अस्तु, एक दिन कपिल पुरोहित,
ग्रामान्तर के कार्य गए । अनायास ही कपिला के भी,
मनचीते सब कार्य भए दासी दौड़ी गई सेठ-घर,
अविरल अश्रु बहाती है । बोलो अलग सुदर्शन से,
___यों अन्तर कपट छुपाती है ॥ “सेठ ! तुम्हारे मित्र कपिल,
हा ! बहुत सख्त बीमार पड़े । जीवन की अन्तिम घड़ियाँ हैं,
शैय्या पर लाचार पड़े ।
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