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सर्ग तीन
अन्धकार के पार
आओ, अब घर कपिल के, चलें वहाँ क्या हाल, बैंठी कपिला ब्राह्मणी, शोकाकुल बेहाल । भोजन गृह में सेठ का, देखा रूप रसाल; कामानल की हृदय में, ज्वाला उठी कराल ।
देखा जब से सेठ सुदर्शन,
कपिला सुध-बुध भूल गई । भोग-वासना के विषधर से,
झूले पर ही झूल गई ॥ लोक-लाज कुल-मर्यादा का,
कुछ भी नहीं खयाल रहा । रात दिवस अन्दर-ही-अन्दर,
शल्य विरह का साल रहा ॥ हर समय सेठ से मिलने की,
ही चिन्ता में वह रहती है । अन्तरंग दासी से अपना,
भेद साफ सब कहती है ॥ "देखा चंपा ! तूने जग में,
सुन्दर ऐसे होते हैं ।
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