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स्वदेश-प्रेम
मस्तक में राष्ट्रोत्थान की ही कल्पना घूमें;
अपने निजी सुख-भोग पर ठोकर लगाता है। परमात्मा या देवता समझे प्रजा को ही;
और तो क्या, रक्षणा-हित प्राण की बलि भी चढ़ाता है । सम्बन्ध राजा और प्रजा का है पिता सुत-सा;
जग में 'अमर' है वह जो आजीवन निभाता है।
उक्त कथन का पंडित ने भी,
किया समर्थन समझा कर । दर्शाये सब भाव हृदय के,
- बड़ी नम्रता दिखलाकर ॥ राजा ने भी राष्ट्र-हितों की,
रक्षा का सम्मान किया । दब्बू या संकोचीपन से नहीं, .
क्रोध अभिमान किया ।
ऊपर मृदुता, किन्तु चित के,
__ अन्दर कटता भारी है। सेठ सुदर्शन के प्रति अति ही,
घृणा भावना धारी है । सोचा-“वणिक, सुगुरु बन मुझको,
शिक्षा देने आया है । स्यार सिंह के कान उमेठे,
कैसा कलियुग छाया है ॥ मैं अवश्य इस गुस्ताखी का,
इक दिन मजा चखाऊँगा ।
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