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________________ धर्म-वीर अन्यायी अधिकारी गण ने प्रजा, - त्रस्त कर तात ! तुम्हारी सन्तति की, दीन प्रजा - जन कैसे-कैसे, जोर चम्पापुर में हास्य कहाँ, जुल्म मिट्टी पलीद कर रक्खी है ॥ वैभव की सुख - निद्रा तज, नित सहते हैं । आँसू के के निर्झर बहते हैं ॥ कुछ प्रजा श्रेय भी करिएगा । गहिएगा || क्षणभंगुर दुनियाँ में स्वामी ! - धनाभाव से यदि शिक्षादिक, रक्खी है अमर सुयश कुछ तो अपना भंडार दास, Jain Education International प्रजाहित न बन सकता कौड़ी - कौड़ी पैसा-पैसा, प्रजाहितार्थ श्री चरणों में धर सकता है ॥ लुटा स्वामी जहाँ खड़ा कर देंगे, वहाँ से पद न राजा वही जो राष्ट्र की सेवा बजाता है; ? दूँगा । हटाऊँगा ॥ १३ 'स्वामी अहं' का भाव सपने में न लाता है । अणु मात्र भी पाता व्यथा अपनी प्रजा में गर; पड़ती जरा न कल, सदा आँसू बहाता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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