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धर्म-वीर सुदर्शन जब-जब मैं इस पतन-चित्र को,
बुद्धि - क्षेत्र में लाता हूँ । दुःख-सिन्धु में बह जाता हूँ,
रोता रात बिताता हूँ ॥
बह चली सुदर्शन के नेत्रों से,
अविरल आँसू की धारा । बोल न सके और कुछ आगे,
रुंधी शेष वाणी - धारा ॥ मर्माहत हो मित्र पुरोहितजी,
भी गद्गद स्वर बोले । राज-भवन के भेद गुप्त-तम,
साफ-साफ सब कुछ खोले ॥
"मित्र ! तुम्हारा कथन सत्य है,
किन्तु न मम वश चलता है । एक-मात्र अभया रानी का,
शासन निर्मम चलता है।
हटाती है।
अधिकारी अपनी इच्छा से,
रखती और आज सिंहासन बैठाती है,
कल फाँसी
लटकाती है ॥
अपने राजा दधिवाहन तो,
अन्तःपुर की तितली हैं। रूपगर्विता अभया के,
हाथों की कठ-पुतली हैं ।
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