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स्वदेश-प्रेम
जलते
हैं ।
न्यायालय में एक भाव से.
गीले सूखे रिश्वत खा-खाकर अधिकारी,
न्याय - नाम पर
पलते हैं ।
te
प्रजा-कष्ट-कर नित्य नए,
जालिम फर्मान निकलते हैं । कर-भारों से दीन-हीन,
श्रमजीवी रो-रो घुलते हैं ।
बैठ वशिष्ठासन पर कब तुम,
अपना फर्ज बजाते हो । राज्य-शान्ति का व्यर्थ ढोंग,
माला - जप में बतलाते हो ॥
'त्राहि-त्राहि' कर प्रजा दुःख से,
जब विद्रोह मचाएगी । शान्ति-पाठ की शान्ति तुम्हारी,
तब क्या ढाल अड़ाएगी ॥ बुद्धि-भ्रष्ट नृप को समझाने,
का तो है अधिकार तुम्हें । जी हुजूर होने पर मिलता,
प्रेत्य नरक का द्वार तुम्हें ॥
तुम्हें भले ही लक्ष्य न हो,
पर, मैं तो अपनी कहता हूँ। रात्रि-दिवस अन्दर ही अन्दर,
चिन्तानल में दहता हूँ।
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