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स्वदेश-प्रेम
जहाँ चाँदी भवानी की छनाछन हो तिजोरी में;
वहाँ झट मित्र-दल ने आन दृढ़ आसन जमाया है ! कुपथ की ओर ले जाते, कराते सैर चकलों की
सिवा रांडों व भांडों के न किस्सा अन्य भाया है !
पड़ीं जब आफतें भारी, फँसा हतभाग्य गर्दिश में;
बनी के यार सब भागे, न ढूँढ़े खोज पाया है ! सुबह बाजार में घूमे, परस्पर डाल गलबाहे;
दुपहरी में जो बिगड़ी शाम को डंडा दिखाया है ! जरा भी गुप्त कोई बात यदि निज मित्र की पाएँ;
करें बदनाम खुल्ला ढोल गलियों में बजाया है ! भलाई ऐसे मित्रों से 'अमर' क्या खाक होवेगी;
वचन- मन में कि जिनके रात्रि दिन -सा भेद पाया है !
क्षेमकुशल इत्यादि की बातें हुईं अनेक; तदनन्तर दोनों चले, हेतु सविवेक ।
भ्रमण
मंद- सुगन्ध - समीर - युत, घूमे पुष्पाराम; वापिस आते कपिल का, आया गृह अभिराम | कहा कपिल ने तब समुद, हुई भ्रमण में देर; भोजन कर मेरे यहाँ, निजगृह जाना फेर सेठ सुदर्शन ने करी, मित्राज्ञा स्वीकार; आनाकानी हो कहाँ, जहाँ कि प्रेमाचार |
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भोजन से होकर निवृत्त,
निज राष्ट्र - चिन्तना करते हैं ।
करते हैं ॥
शान्त कान्त एकान्त भवन में,
गुप्त
मंत्रणा
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