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धर्म-वीर सुदर्शन मैत्री के प्रण को जिसने,
___'अथ' से 'इति' पूर्ण निभाया है ।। दुग्ध और जल-सी अभिन्नता,
जरा दुई का नाम नहीं । प्रेम-पंथ में स्वार्थ हलाहल,
का तो कुछ भी काम नहीं ॥ पर्वत-सम अपने दुःख को,
जो सर्षप - जैसा गिनता है । किन्तु, मित्र-दुख सर्षप भर की,
गिरि से समता करता है । जहाँ पसीना पड़े मित्र का,
अपना रक्त बहा डाले । झेले अनहद कष्ट स्वयं,
पर, सुखिया मित्र बना डाले ॥ दब्बू या खुदगर्जी बनकर,
अपना धर्म न खोने दे । और नहीं कर्तव्य-भ्रष्ट,
अपने मित्रों को होने दे ॥ हंत ! स्वर्ण-युग मित्रों का,
लद गया, घोर अंधेर हुआ । दोस्त नाम से दोषों का अब,
अटल राज्य चहुँ फेर हुआ ॥
समय के चक्र ने कैसा भयंकर फेर खाया है;
जगत में मित्रता के नाम पर अंधेर छाया है !
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