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सर्ग दो
स्वदेश-प्रेम
दम्पति प्रेमानन्द से, करते काल व्यतीत; पूरी लय पर चल रहा, गृह- जीवन - संगीत । राज-पुरोहित श्री कपिल, बाल्यकाल के मित्र; आए घर पर एक दिन, सरल स्नेह के चित्र ।
देख सुदर्शन श्रेष्ठि-वर्य ने,
झट उठ आदर मान दिया । अपने हाथों लगा प्रेम से,
वर ताम्बूल प्रदान किया ॥ अंग-अंग पुलकित था उमड़ा,
हर्ष न हृदय समाता था । मित्र मेघ के आने पर,
___ मन-मोर मुग्ध हो नाचा था ॥ भूमंडल में 'मित्र' शब्द,
भी कैसा जादू रखता है । स्नेह-सूत्र में दो हृदयों को,
अविकल बाँधे रखता है । सच्चा मित्र वही जगत में,
सर्व-श्रेष्ठ कहलाया
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