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________________ उपक्रम स्नेह-मूर्ति था द्वेष, क्लेश का, लेशमात्र था नाम नहीं । स्वप्नलोक में भी झगड़े-टंटे का, था कुछ काम नहीं । दीनों की सेवा करने में, निश दिन तत्पर रहता था । नर-सेवा में नारायण-सेवा, का तत्त्व समझता था । - भूला भटका दुःखी दीन, __ जब कभी द्वार पर आता था आश्वासन सत्कारपूर्ण सस्नेह, यथोचित पाता था । पक्का था । यौवन की आँधी में भी वह, सदाचार का निज पत्नी के सिवा शुद्ध मन, ब्रह्मचर्य में सच्चा था । - धारे थे। बाल्य-काल में श्रावक-व्रत के, नियम गुरू से धारे क्या, अनुभव के बल, निज अन्तर्मध्य उतारे थे । देता था । न्याय-मार्ग से द्रव्य कमाकर, न्याय - मार्ग में सकुशल जीवन-नैय्या अपनी, भव-सागर में खेता था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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