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उपक्रम
स्नेह-मूर्ति था द्वेष, क्लेश का,
लेशमात्र था नाम नहीं । स्वप्नलोक में भी झगड़े-टंटे का,
था कुछ काम नहीं ।
दीनों की सेवा करने में,
निश दिन तत्पर रहता था । नर-सेवा में नारायण-सेवा,
का तत्त्व समझता था ।
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भूला भटका दुःखी दीन,
__ जब कभी द्वार पर आता था आश्वासन सत्कारपूर्ण
सस्नेह, यथोचित पाता था
।
पक्का
था ।
यौवन की आँधी में भी वह,
सदाचार का निज पत्नी के सिवा शुद्ध मन,
ब्रह्मचर्य में
सच्चा
था
।
-
धारे
थे।
बाल्य-काल में श्रावक-व्रत के,
नियम गुरू से धारे क्या, अनुभव के बल,
निज अन्तर्मध्य
उतारे थे ।
देता
था ।
न्याय-मार्ग से द्रव्य कमाकर,
न्याय - मार्ग में सकुशल जीवन-नैय्या अपनी,
भव-सागर में
खेता
था ।
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