________________
धर्म-वीर सुदर्शन
अपवाद में कुछ नियमों का उल्लंघन भी होता है, फिर भी वह मार्ग ही है, उन्मार्ग या कुमार्ग नहीं है । जीवन एवं साधना के सहज रूप को प्रस्तुत निबन्ध में स्पष्ट किया है । उत्सर्ग और अपवाद, दोनों ही धर्म हैं । दोनों आगम विहित होने से धर्म हैं ।
४. महामन्त्र नवकार—इसमें मन्त्र की विशेषता का सांगोपांग वर्णन एवं सभी दृष्टियों से विवेचन किया गया है । नमस्कार मन्त्र जैन धर्म का मूल आधार है ।
५. समाज एवं संस्कृति-सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से व्यक्ति एवं समाज के विकास एवं आध्यात्मिक अभ्युदय के लिए प्रस्तुत पुस्तक में गम्भीर विवेचन किया गया है । संस्कृति के स्वरूप का और उसके व्यापक रूप का वर्णन किया गया है ।
६. चिन्तन की मनोभूमि-प्रस्तुत विशाल-ग्रन्थ के अनुरूप कवि श्री जी के गहन अध्ययन, गम्भीर चिन्तन एवं उदात्त विचारों का कोष है । प्रस्तुत ग्रन्थ में चिन्तन का विषय जीव भी रहा है और जगत् भी; आत्मा भी रहा है और परमात्मा भी । परन्तु सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि धर्म, दर्शन और अध्यात्म की मनोभूमि से जीवन का सर्वांगीण सत्य इसमें उद्घटित हुआ है । महान् साहित्यकार सेठ गोविन्द दास जी के शब्दों में-"प्रस्तुत ग्रन्थ अपने जन-हितकारी दृष्टिकोण के कारण जो भारत के मानव का दिशा-निर्देशन करता है, सामान्य तौर से भारतीय-दर्शन और विशेषकर जैन-दर्शन में अपना विशिष्ट स्थान रखता है ।" समय-समय पर आध्यात्मिक, सामाजिक, नैतिक, दार्शनिक एवं शास्त्रीय विषयों पर लिखे गये लेख जीवन को सही दिशा-दर्शन एवं नया मोड़ देने वाले हैं । वस्तुतः यह प्रतिनिधि ग्रन्थ है।
सुविश्रुत दार्शनिक विद्वान श्री बलदेव उपाध्याय के शब्दों में, "उपाध्याय जी की दृष्टि पैनी है तथा लेखनी अर्थ-बोधिनी है । फलतः यह ग्रन्थ जैन-धर्म को साम्प्रदायिकता के संकुचित क्षेत्र से ऊपर उठाकर विश्व-धर्म की विशालता पर पहुंचा देता है । भारत के तीनों धर्मों का सुन्दर समन्वय है ।"
व्याख्या-साहित्य
१. सामायिक-सूत्र और २. श्रमण-सूत्र ।
आवश्यक सूत्र साधना के लिए महत्त्वपूर्ण है । सामायिक एवं प्रतिक्रमण जीवन-साधना के लिए, समत्व-भाव में रमण करने के लिए अत्यावश्यक है । समत्व की साधना में कहीं स्खलन न हो और स्खलन हो जाये तो उसकी शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण-आत्म-निरीक्षण आवश्यक है । प्रस्तुत उभय ग्रन्थ सामायिक एवं श्रमण-सूत्र के भाष्य हैं । समत्व-योग एवं आत्म-निरीक्षण की साधनाओं पर अनेक दृष्टियों से विस्तृत विवेचन किया है । चिन्तनशील प्रबुद्ध साधकों के लिए दोनों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org