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________________ मुक्ति की अनुभूति में ही जागृति, चिन्मयता, सजगता का आविर्भाव होता है। कायोत्सर्ग की साधना से राग, द्वेष, मोह आदि विकारों से ग्रस्त दुःखी प्राणियों के प्रति करुणाभाव जागता है। करुणा भाव से प्रीति, प्रमोद, मैत्री भाव का उदय होता है। कामना व ममता-त्याग से स्वार्थपरता व स्वामित्वभाव मिट जाता है जिससे उदारता व प्रीति के रस की गंगा बहने लगती है। इस प्रकार कायोत्सर्ग की साधना से साधक का मैत्री, प्रमोद, करुणा व माध्यस्थ (उपेक्षा-विराग) भाव व सर्वहितकारी प्रवृत्तिमय जीवन बन जाता है। उससे निज-रस आने लगता है, जिससे विषय-सुख व नीरसता का अन्त स्वतः हो जाता है। फलस्वरूप कामना, वासना, ममता, अहंता आदि विकार गल जाते हैं। शान्ति, मुक्ति, प्रीति, मैत्री, प्रमोद, करुणाभाव के रस के अभाव में केवल सिद्धान्तों की चर्चा व चिंतन से नीरसता व विषयभोग की वासना का अन्त कदापि संभव नहीं है। विषय-सुख के भोगी को अशान्ति, पराधीनता, अभाव, तनाव, रोग, शोक, जन्म, जरा, मरण आदि दुःख भोगने ही पड़ते हैं, यह प्राकृतिक विधान है जिसे टालने में कोई भी समर्थ नहीं है। इन अनिष्ट स्थितियों व दुःखों से मुक्ति पाने के लिये ध्यान व कायोत्सर्ग साधना को अपनाना ही पड़ेगा, अतः राग, द्वेष, मोह आदि विकारों का नाश कर दुःखरहित शाश्वत सुख पाने के लिये कायोत्सर्ग साधना करने में एक क्षण का भी प्रमाद नहीं करना चाहिये। कायोत्सर्ग : दुःख-विमुक्ति का उपाय 87 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001217
Book TitleKayotsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size7 MB
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