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के लिये विषय-सुख का भोगी फिर नवीन विषय-सुख पाने के लिए नई कामना करता है। उसकी पूर्ति करके उसका सुख भोगता है। जिसका अंत पुनः नीरसता में होता है। इस प्रकार नीरसता दूर करने के लिये, निरन्तर कामना की उत्पत्तिपूर्ति का चक्र चलता ही रहता है। इस नीरसता का निवारण करना, उसकी जड़ उखाड़ना ही इस चक्र से छुटकारा पाना है।
नीरसता दूर करने का वास्तविक उपाय है ऐसे रस की उपलब्धि होना, जो क्षणिक न हो, क्षीण न हो। शान्ति, मुक्ति और प्रीति का रस ऐसा ही रस है। कारण कि यह रस न तो किसी अनित्य व अनात्म पदार्थ से पैदा होता है और न किसी अनित्य व अनात्म पदार्थ पर निर्भर करता है। यह रस स्वरस है, अतः स्वाधीन है। किसी देश, काल व पदार्थ/पुद्गल के आधीन नहीं है। अतः यह रस अक्षुण्ण रहने वाला है। इसका अन्त कभी नीरसता में नहीं होता। प्राणी अपनी ही भूल से, भ्रान्ति से, विषय-सुख में, जो वस्तुतः सुखाभास है, पराधीनता, आकुलता आदि दोषों या दुःखों से युक्त है, उस सुख को पाने की कामना करता है जिससे वह शान्ति के सुख से विमुख हो जाता है। वह ममता करता है जिससे मुक्ति (स्वाधीनता) के रस से विमुख हो जाता है। ___आशय यह है कि विषय-सुख ही समस्त दोषों व दुःखों का बीज है। यह बीज नीरसता की भूमि में उपजता है। अर्थात् नीरसता की भूमि में विषय-सुख की कामना उत्पन्न होती है। विषय-सुख की कामना व भोग की इच्छा तभी मिट सकती है जब प्राणी को ऐसा सुख मिले जो अनित्य व अनात्म पदार्थों पर निर्भर न हो। वह स्वरस ही हो सकता है। उस स्वरस की अनुभूति शान्ति, मुक्ति व प्रीति के रूप में होती है। अतः साधक स्वरस प्राप्त कर विषय-सुखों पर विजय प्राप्त करता है। जिसे स्वरस नहीं मिलता वह कितने ही उपाय करे, सहस्रों ग्रन्थ पढ़े, कामनाओं पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता। उसका चित्त कामना-उत्पत्ति से अशान्त होगा ही, ममता से पराधीन होगा ही, स्वार्थपरता से संकीर्ण होगा ही, किन्तु अशान्ति, पराधीनता किसी को भी इष्ट नहीं हैं।
समस्त विषय-सुख इन्द्रिय-भोगों से संबंधित हैं, अतः एक ही जाति के हैं। जबकि स्वरस अनेक प्रकार के हैं, उनमें शान्ति, मुक्ति, प्रीति के रस मुख्य हैं। इनकी अनुभूति से ही नीरसता का अन्त संभव है। शान्ति के सुख की अनुभूति कामना-निवृत्तिजन्य चित्त की स्थिरता से ही संभव है। शान्ति व विश्रांति की भूमि में ही शक्ति का प्रादुर्भाव एवं विवेक की जागृति होती है। मुक्ति (स्वाधीनता) की अनुभूति शरीर और संसार के प्रति रहे हुए अपनेपन (ममत्व) के त्याग से होती है जो शरीर-व्युत्सर्ग और संसार-व्युत्सर्ग से सहज सम्भव है। 86 कायोत्सर्ग
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