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________________ प्रथम प्रकार का सुख, जो इन्द्रिय-भोग से संबंधित है, इसकी प्रतीति कामनापूर्ति से होती है। इस सुख में प्रारम्भ से अंत तक पराधीनता, परवशता, विवशता, जड़ता, मूढ़ता, नीरसता, शक्ति-क्षीणता, अभाव आदि संसार की समस्त अनिष्ट स्थितियाँ जुड़ी रहती हैं तथा समस्त दुःखों का मूल भी यही सुख है। संसार में कोई भी दुःख ऐसा नहीं है जिसका कारण विषय-भोग का सुख न हो। यह अटल नियम है कि जहाँ विषय-सुख का भोग होगा, वहाँ दुःख रहेगा ही। अतः दुःख-रहित सुख, विषय-सुख के त्याग से ही संभव है, विषय-सुख के भोग से कभी संभव नहीं है। विषय-सुख को त्यागने के उपाय हैं-विषय-भोग की कामनाओं का त्याग, विषय-भोग की सामग्री की ममता व उनके प्रति अपनेपन का त्याग; प्राप्त सामग्री व बल का भोग स्वयं न कर उसे परसेवा में लगा देना। विषय-भोग की कामनाओं के त्याग से शान्ति का सुख, ममता-त्याग से मुक्ति (स्वाधीनता) का सुख तथा सेवा भाव से प्रीति का सुख मिलता है। शान्ति, मुक्ति व प्रीति का सुख, दुःख-रहित सुख है। शान्ति, मुक्ति और प्रीति की अनुभूति कायोत्सर्ग से होती है। यहाँ इसी पर विचार करना है। ___ कायोत्सर्ग में साधक प्रथम श्वास पर चित्त एकाग्र करता है जिससे चित्त की अस्थिरता, चंचलता, अशान्ति मिट जाती है और शान्ति के साम्राज्य में प्रवेश हो जाता है। चित्त की शान्ति का भी एक रस है, सुख है, जो विषय-रस या सुख से भिन्न है। इससे आगे बढ़कर साधक जब ध्यान से अंतर्मुखी होता है तो वह शरीर, चित्त एवं चित्त में उठने वाले विकारों एवं संवेदनाओं का द्रष्टा बन जाता है, कर्ता-भोक्ता नहीं रहता। द्रष्टा बनने से दृश्य की अनुकूलताप्रतिकूलता का प्रभाव उस पर नहीं पड़ता। फलतः वह अनुकूलता-प्रतिकूलता में सुखी-दुःखी नहीं होता। अर्थात् सुख-दुःख से मुक्त हो जाता है। इस मुक्ति का भी अपना रस है जो शान्ति के रस से विशेष प्रकार का है। इस रहस्य को कायोत्सर्गकर्ता साधक ही जानता है । शान्ति और मुक्ति के रस के साथ प्रीति की जागृति होती है। प्रीति के रस का सुख निराला ही होता है। ____ शान्ति, मुक्ति और प्रीति का सुख विषय-सुख से सर्वथा भिन्न होता है। वह सुख स्वाधीनता, चिन्मयता, निराकुलता व संतुष्टियुक्त होता है। जबकि विषय-सुख अभाव, पराधीनता, जड़ता आदि दोषों से युक्त होता है। यह नियम है कि ऐन्द्रिय सुख प्रतिक्षण क्षीण होता है और अंत में इस सुख की परिणति नीरसता में होती है। उदाहरणार्थ कैसा ही स्वादिष्ट भोजन हो, कैसा ही मधुर संगीत हो, खाते-खाते व सुनते-सुनते ऊब ही जाते हैं। ऊब या नीरसता मिटाने कायोत्सर्ग : दुःख-विमुक्ति का उपाय 85 Jain Education International For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.001217
Book TitleKayotsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size7 MB
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