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कायोत्सर्ग को कर्म-निर्जरा की साधना-आभ्यन्तर तप में चरम स्थान दिया गया है। इस प्रकार स्वाध्याय से ध्यान की और ध्यान से कायोत्सर्ग की सिद्धि होती है। ध्यान लोकातीत और कायोत्सर्ग देहातीत अवस्था की उपलब्धि में कारणभूत है। आत्यन्तिक रूप में लोकातीत और देहातीत होना ही मुक्ति है, सिद्धत्व की प्राप्ति है। आन्तरिक स्वस्थता का सुख विषय-विकार के सुख से निराला है। स्व (अविनाशी) से प्रकट होने से यह सुख अविनाशी है। इससे भी अनन्त गुणा अक्षय सुख मुक्ति में है।
इस प्रकार स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग-साधना से कर्म-निर्जरा, शरीर, संसार तथा दुःख से मुक्ति एवं शान्ति, स्वस्थता, अक्षय, अव्याबाध, अनन्त सुख की उपलब्धि होती है। यह ही कायोत्सर्ग का फल है।
74 कायोत्सर्ग
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