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________________ मिट जाता है अर्थात् व्यक्ति स्वस्थ हो जाता है तो उसे औषधि लेने की आवश्यकता नहीं रहती। इसी प्रकार व्यक्ति विषय-विकार से ग्रस्त है, उसमें 'पर'-चर्चा और चिन्तन का राग है, तब तक उसके लिए पर-चर्चा और चिन्तन के निवारण के लिए स्व-चर्चा और स्व-चिन्तन रूप स्वाध्याय औषधि का सेवन आवश्यक है, यह साधनावस्था है। जब साधक स्वाध्याय-औषधि के फलस्वरूप स्व-स्थ (ध्यान) अवस्था को प्राप्त कर लेता है, तब स्व-चिन्तन, स्व-चर्चा रूप औषधि सेवन करने की आवश्यकता नहीं रहती। इस प्रकार स्वाध्याय से ध्यान की उपलब्धि होती है। स्वाध्याय कारण है और ध्यान कार्य । ध्यान का अर्थ है चित्त को सर्व ओर से हटाकर स्व में स्थित करना। स्व का दर्शन करना । स्व का दर्शन करना ही सत्य का दर्शन करना है। सत्य अर्थात् जो जैसा है, उसके उस वास्तविक स्वरूप का अनुभव करना और उस अनुभव के प्रभाव से राग-द्वेषादि दोषों से दूर होना। ध्यान में चित्त शान्त और समत्व भाव को प्राप्त होता है जिससे शरीर के ऊपरी एवं भीतरी भाग और उन पर होने वाली संवेदनाओं का अनुभव होता है। इन संवेदनाओं में सतत उत्पाद-व्यय होता है। चित्त से देखने पर यह उत्पाद-व्यय और भी अधिक द्रुतगामी होता हुआ अनुभव होता है। ध्यान में जितना-जितना समता व सूक्ष्मता के क्षेत्र की गहराई में प्रवेश होता जाता है, यह उत्पाद-व्यय. उतनी ही अधिक शीघ्रता से होता हुआ अनुभव होता जाता है। यहाँ तक कि एक पल में लाखों-करोड़ों बार से भी अधिक उत्पाद-व्यय होता दिखाई देता है। जो इतना परिवर्तनशील, नश्वर है जिसका अस्तित्व क्षणभर के लिए भी नहीं है, ऐसे क्षणभंगुर शरीर व संसार के प्रति कौन पुरुष राग, द्वेष, मोह करना पसन्द करेगा? अर्थात् कोई नहीं करेगा। अतः बुद्धिमान, प्रज्ञावान पुरुष उत्पाद-व्यय जगत् से अपने को भिन्न, ध्रुव अनुभव कर शरीर, संसार, परिवार आदि के प्रति राग-द्वेष, मोह छोड़कर स्वानुभव की ओर बढ़ता जाता है। यही स्वानुभव की वृद्धि सच्चे अर्थ में ध्यान है। इससे जब सर्व (पर अन्य) पदार्थों और सूक्ष्म शरीर से भी सम्बन्ध छूट जाता है, तो पूर्ण स्वानुभव हो जाता है, यही कायोत्सर्ग साधना की परिसमाप्ति है। इस प्रकार कायोत्सर्ग से 'पर' से हटना, निवृत्त होना संयम या संवर है, और ग्रन्थियों (कर्मों) को तोड़ना, क्षय करना निर्जरा है। ___ साधक का साध्य है, दुःख से आत्यन्तिक मुक्ति, अविनाशी सुख की उपलब्धि । इस सुख का उपाय है, शरीर और संसार (लोक) से अतीत होना अर्थात् देहातीत और लोकातीत होना । स्व में स्थित होना संसार से परे हटना है। स्व में स्थित होने का परिणाम है कायोत्सर्ग अर्थात् देहातीत होना। इसीलिए कायोत्सर्ग से कर्म-निर्जरा 73 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001217
Book TitleKayotsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size7 MB
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