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संसार से सम्बन्ध, चिन्तन व चाह रहते हुए स्वयं की खोज नहीं हो सकती। सेवा से जब शरीर और संसार से सम्बन्ध टूटता है, तब हम स्वयं की खोज के अधिकारी होते हैं। अपनी खोज करना ही स्वाध्याय है। जो अपनी खोज करता है वह खोज करते-करते स्वयं खो जाता है फिर केवल "है" शेष रह जाता है। अर्थात् 'मैं' 'है' में विलीन हो जाता है। जो शरीर और संसार में कुछ भी अपने लिए सुख चाहेगा, उसका शरीर और संसार से तादात्म्य बना रहेगा । उसका शरीर और संसार से अहंत्व और ममत्व का सम्बन्ध बना रहेगा, वह शरीर और संसार को ही मैं और मेरा मानेगा। वह शरीर और संसार से पृथकता का अनुभव नहीं कर सकता। मैं व मेरेपन के त्याग से अर्थात् कषाय आदि के त्याग से शरीर की पृथकता का अनुभव होता है । यह अनुभव होना ही अपने स्वरूप में स्थित होना है, अपने स्वरूप को जानना है, यही स्वाध्याय है । चाह रहित - अचाह होना, संकल्प - विकल्प रहित होना ही समाधि है ।
शरीर से चैतन्य का पृथक् अनुभव होना ही देह व्युत्सर्ग है। संसार से पृथकता का अनुभव होना ही संसार-व्युत्सर्ग है । कषाय रहित होना ही कषायव्युत्सर्ग है, अतः विषय-सुख के भोगी को अपने स्वरूप एवं देहातीत अवस्था का अनुभव नहीं हो सकता अर्थात् जो प्रवृत्ति अपने सुख के लिए की जाती है, वह भोग है, अतः जो प्रवृत्ति अपने सुख के लिए न होकर परहित के लिए की जाती है, वह सेवा है । सेवा से ही स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग की सामर्थ्य आती है । साधक व योगी वह ही है जो भोगी नहीं है। जो भोगी नहीं है उसकी कोई भी प्रवृत्ति अपने सुख के लिए नहीं होकर परहित के लिए होती है । वह सेवा - रूप ही होती है। सेवा के अभाव में अर्थात् भोगवृत्ति रहते न स्वाध्याय सम्भव है, न ध्यान सम्भव है और न ही व्युत्सर्ग सम्भव है । सेवा अर्थात् सद्प्रवृत्ति से स्वाध्याय की, स्वाध्याय से ध्यान की, ध्यान से कायोत्सर्ग की सामर्थ्य आती है । कायोत्सर्ग से शरीर, संसार, कषाय व कर्म का व्युत्सर्ग होता है, जिससे कर्मों की निर्जरा होकर मुक्ति की प्राप्ति होती है ।
स्थूल शरीर को 'मैं' मानने से इन्द्रियों से सम्बन्ध जुड़ता है । इन्द्रियों के सम्बन्ध जुड़ने से इन्द्रियाँ विषय-भोगों की ओर प्रवृत्त होती हैं, जिससे मन से सम्बन्ध जुड़ता है। इससे विषय - सुख की लोलुपता उत्पन्न होती है। सुखलोलुपता की दासता में आबद्ध व्यक्ति में जड़ता आ जाती है जिससे उसके हृदय में दुःखियों के प्रति करुणा एवं उनको सुख पहुँचाने का भाव उत्पन्न नहीं होता है । इसके विपरीत अपने को देह नहीं मानने से शरीर और इन्द्रियों की विषयभोग में प्रवृत्ति नहीं होती है अर्थात् अशुभ प्रवृत्ति से असंगता हो जाती है, फिर 58 कायोत्सर्ग
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