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________________ स्वतः सेवा-रूप शुभ प्रवृत्ति होती है। इससे नवीन कर्म-बंध रुक जाता है। सेवा या वैयावृत्य प्रवृत्ति में कर्तृत्व का अभिमान व फल की आकांक्षा न रहने से व्यर्थ चिन्तन की निवृत्ति हो जाती है अर्थात् सूक्ष्म शरीर से असंगता हो जाती है और स्वाध्याय रूप-निजस्वरूप सार्थक चिन्तन स्वतः होने लगता है। फिर स्वाध्याय रूप सार्थक चिन्तन अचिन्तन में विलीन या परिणत हो जाता है। चिन्तन रहित शान्त-निर्विकल्प अवस्था ध्यान है। निर्विकल्प अवस्था के रस में रमण न करने से, अप्रयत्न होने से, कारण (कार्मण) शरीर से असंगता हो जाती है जिससे कर्मों का व्युत्सर्ग होता है। आत्म-गुणघाती कर्मों का क्षय हो जाता है। यह ही कायोत्सर्ग तप का उत्कर्ष रूप है जिससे शरीर, संसार, कषाय से असंगता होकर घाती कर्मों की निर्जरा (क्षय) हो जाती है। फिर कुछ भी जानना शेष नहीं रहता है जिससे अशेष-अनन्त ज्ञान प्रकट हो जाता है। सन्देह शेष नहीं रहने से निर्विकल्प बोध, अनन्त दर्शन (चैतन्य स्वरूप) प्रकट हो जाता है। ‘करना' शेष नहीं रहने से यथाख्यात चारित्र हो जाता है। आज तक किसी को भी यह ज्ञात नहीं हो सका कि हमारा देह से सबसे पहले सम्बन्ध कब जुड़ा था, क्यों जुड़ा था, हम निज स्वरूप से विमुख कब हुए थे, क्यों हुए थे? एक सच्चे साधक के लिए इन प्रश्नों का महत्त्व भी नहीं है। उसके लिए तो यह समझ लेना, अनुभूति कर लेना महत्त्वपूर्ण है कि कायोत्सर्ग से देहातीत होने पर अनन्त-नित्य-चिन्मय जीवन से अभिन्नता हो जाती है। इससे यह मानना पड़ता है कि सभी दोषों का मूल अनन्त से विमुखता है, देह से जुड़ना है, देहाभिमान है। इस मूल दोष को मिटाने के लिए चाहे तो 'मैं देह नहीं हैं' इस विवेक को अपनाये अथवा 'मैं शुद्ध, बुद्ध, निरंजन हूँ'-इस विश्वास को अपनाये, अथवा अपने को देहातीत अनुभव करे, इन में से जो साधना जिसको सुगम हो, वह उसे अपनाये तो साधक का जीवन उस साधना से अभिन्न हो जाता है और वह सुगमतापूर्वक अपने साध्य को प्राप्त कर लेता है। कायोत्सर्ग : एक अनुचिन्तन 59 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001217
Book TitleKayotsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size7 MB
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