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कायोत्सर्ग : एक अनुचिन्तन
दुःख किसी को भी पसन्द नहीं है। फिर भी दुःख आ ही जाता है। दुःख आने का कारण क्या है ? तो कहना होगा कि समस्त दुःखों की उत्पत्ति का कारण दोष है। कोई भी दुःख ऐसा नहीं है जो किसी दोष का परिणाम नहीं हो। अब प्रश्न उठता है कि दोषों की उत्पत्ति का कारण क्या है ? विचार करने से ज्ञात होता है कि सभी दोष देहाभिमान से, अपने को देह मानने से, देह से तादात्म्य करने से उत्पन्न होते हैं। कारण कि देहाभिमान प्राणी में वासनाएँ उत्पन्न कर देता है। वासनापूर्ति के सुख से राग उत्पन्न होता है और उस सुख में जो बाधक बनता है उससे द्वेष उत्पन्न होता है। राग-द्वेष से समस्त दोषों की उत्पत्ति होती है। दोषों के परिणाम से दुःखों की उत्पत्ति होती है। अतः समस्त दुःखों व दोषों से मुक्त होने का उपाय है देहाभिमान से रहित होना। इसी को जैन तत्त्वज्ञान में कायोत्सर्ग कहा है और कायोत्सर्ग से दुष्कर्म (पापकर्मों) की निर्जरा होती है। जिससे दोष व दुःख का निवारण हो जाता है।
कायोत्सर्ग व देहाभिमान से रहित होने का उपाय क्या है? इसके लिए सर्वप्रथम इन्द्रिय-ज्ञान के प्रभाव को बुद्धिज्ञान से मिटाना होगा। इन्द्रिय-ज्ञान से शरीर आदि भोग्य वस्तुएँ सुन्दर, सुखद तथा स्थायी प्रतीत होती हैं, जिससे प्राणी विषयसुख की वासनाओं में आबद्ध हो जाता है और पराधीन होकर दीन-हीन हो जाता है। यथा- जब कोई अपने ही शरीर को इन्द्रियजन्य ज्ञान से देखता है तब उसे शरीर सुन्दर व स्थायी ज्ञात होता है किन्तु जब उसी शरीर को बुद्धिजन्य ज्ञान से देखता है तब उसे शरीर के भीतर मल, मूत्र, मांस, मज्जा आदि दुर्गन्धित वस्तुएँ भरी हई दिखाई देती हैं जिससे शरीर के प्रति घृणा उत्पन्न होती है तथा शरीर की सुन्दरता अरुचि में परिणत हो जाती है। इस प्रकार जो बुद्धिज्ञान से .शरीर की वास्तविकता को स्वीकार करेगा, वह उसमें रहना पसन्द नहीं करेगा। जैसे किसी स्वर्ण-घट में मल-मूत्र आदि दुर्गन्धित वस्तुएँ भरकर ऊपर रेशम से ढक दिया जाय तो उसे क्या कोई अपने पास रखना पसन्द करेगा? नहीं। वृद्धावस्था में शरीर में झुरियाँ पड़ जाती हैं और सुन्दरता नष्ट हो जाती है, फिर मृत्यु हो जाती है और अन्त में शरीर मिट्टी में मिल जाता है अर्थात् शरीर में सतत परिवर्तन होता है, क्षणभंगुर है। इस प्रकार जो शरीर, इन्द्रिय-ज्ञान से सुन्दर व 56 कायोत्सर्ग
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