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वाणी, मन तथा शरीर के क्षोभ का प्रयत्नपूर्वक परित्याग करना चाहिए अर्थात् साधक सदा ऐसा प्रयत्न करे, जिससे वाणी, मन और शरीर में क्षोभ न आये। शिला की प्रतिमा के समान उसे अपने शरीर को अच्छी तरह सुस्थिर (निश्चल) रखना चाहिए।
यावत्प्रयत्नलेशोऽस्ति यावत्संकल्पकामना।
अहं त्वमिति सम्प्राप्तिस्तावत्तस्य का कथा।। जब तक थोड़ा-सा भी प्रयत्न रहेगा, जब तक संकल्प-कामना होगी, अहं-त्वम्-मैं-तुम का ज्ञान है अर्थात् मैं और तुम इस प्रकार का द्वैत-बोध रहेगा तब तक तत्त्व की बात कहाँ?
___ औदासीन्यामृतौधेन वर्धमानेन योगीनाम् ।
उन्मूलितमनोमूलौ जगवृक्षः पतिष्यति॥ योगियों के निरन्तर बढ़ रहे उदासीनता रूपी अमृत के प्रवाह से मन रूपी मूल (जगत् की जड़) के उखड़ जाने पर, उन्मूलित हो जाने पर जगत् रूपी वृक्ष गिर जायेगा।
निक्षिप्तं कनकं विहाय कलुषं यद्वद् भवेन्निर्मलं निर्वातस्थितनिस्तरंगमुदकं स्वच्छस्वभावं परम्। तद्वत् सर्वमिदं विहाय सकलं देदीप्यते निष्कलं
तत्त्वं तत्सहजं स्वभावममलं जातऽमनस्के ध्रुवम्॥
अग्नि में डाला हुआ सोना जैसे कालिमा का त्याग कर निर्मल हो जाता है एवं जैसे निर्वात (वायुरहित) स्थान पर जल तरंगरहित तथा स्वच्छ-स्वभाव रहता है, वैसे ही अमनस्क हो जाने पर सकल (कल-सहित) तत्त्व निश्चय ही इस निश्चल प्रपंच का त्याग कर निर्मल, निष्कल, सहज स्वभाव हो जाता है।
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।
बन्धाय विषयासंगि मुक्तये निर्विषयं मनः ।। मन ही मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष का हेतु है। विषयों में आसक्त मन बन्धन के लिए और निर्विषय मन मुक्ति के लिए कारण होता है।
जायमानामनस्कस्य हृदासीनस्य तिष्ठतः।
मृदुत्वं च परत्वं च शरीरस्यास्थ जायते ।। अमनस्कता जिसमें उत्पन्न हो रही है और जो चारों ओर से सर्वविषयों में उदासीन रहता है और जो स्थितशील हो गया है, ऐसे योगी का शरीर कोमल और श्रेष्ठ हो जाता है।
54 कायोत्सर्ग
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