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जिसकी दृश्य के बिना ही दृष्टि स्थिर हो, प्रयत्न के बिना ही जिसकी वायु स्थिर हो, बिना किसी अवलम्ब के जिसका चित्त स्थिर हो, वही योगी है, वही गुरु है, उसी की सेवा करनी चाहिए।
अमनस्कं सशिष्येषु संक्राम्येन्द्रियजं सुखम्।
निवारयन्ते ते वन्द्या गुरुवोऽन्ये प्रतारकाः।। जो सुशिष्यों में 'अमनस्क' को संक्रान्त कर इन्द्रियजन्य सुख को हटाते हैं, निवृत्त करते हैं, वे गुरु वन्दनीय हैं, उनसे अन्य गुरु गुरु नहीं हैं, वंचक हैं।
शिथिलीकत सर्वाङ्ग आनखाग्रशिखाग्रतः। सबाह्याभ्यन्तरे सर्व चिन्ताचेष्टाविवर्जितः॥ यदा भवेदुदासीनस्तदा तत्त्वं प्रकाशते।
स्वयं प्रकाशते तत्त्वे स्वानन्दस्तत्क्षणाद् ।। पैर के अंगूठे के नख से लेकर शिखा के अग्रभाग (ब्रह्मरन्ध्र) तक सम्पूर्ण अंगों को शिथिल कर योगी बाहरी और भीतरी सब चिन्ता और चेष्टा का त्याग कर जब उदासीन होगा, तब अमनस्क तत्त्व का प्रकाश होता है। उक्त तत्त्व के स्वयं प्रकाश में आने पर आत्मानन्द तत्क्षण प्राप्त होता है।
आनन्देन च सन्तुष्टः सदाभ्यासरतो भवेत्।
सदाभ्यासे स्थिरीभूते न विधिनैव च क्रमः॥ आनन्द से सन्तुष्ट होकर सदा अभ्यास में निरत रहना चाहिए। सदा अभ्यास के स्थिर होने पर फिर न कोई विधि है और न कोई क्रम है।
न किंचिच्चिन्तयेद योगी औदासीन्यपरो भवेत ।
न किंचिच्चिन्तनादेव स्वयं तत्त्वं प्रकाशते॥
योगी कुछ भी चिन्तन न करे, औदासीन्यपरायण (चिन्तन में उदासीन अथवा तटस्थ) हो। कुछ चिन्तन न करने से ही तत्त्व स्वयं प्रकाश में आ जाता है।
स्वयं प्रकाशिते तत्त्वे तत्क्षणात्तन्मयो भवेत्।
इदं तदिति. तद्वक्तुं गुरूणापि न शक्यते॥ तत्त्व जब स्वयं प्रकाशित होता है, तब तत्क्षण उपासक (योगी) तत्त्वमय हो जाता है। यह वह (तत्त्व) है' इस प्रकार उसका प्रतिपादन गुरु भी नहीं कर सकते।
वाङ्मन:कायसंक्षोभं प्रयत्नेन विवर्जयेत्। शिलाचित्रमिवात्मानं सुस्थिरं धारयेत्तदा ।।
कायोत्सर्ग और अमनस्क साधना 53
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