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________________ आत्म-साधना तांस्तानापरमेश्वरादपि परान् भावैः प्रसादं नयन्, तैस्तैस्तत्तदुपायमूढ भगवन्नात्मन् किमायस्यसि । हन्तात्मानमपि प्रसादय मनाग येनासतां सम्पदः, साम्राज्यं परमेऽपि तेजसि तव प्राज्यं समुज्जभते ।। हे उपायमूढ, हे भगवन, हे आत्मन्! तू धन, यश आदि इष्ट पदार्थों के संयोग और रोग, दरिद्रता आदि अनिष्ट के वियोग की अभिलाषा से प्रेरित होकर परमात्मा, देवी, देवता आदि दूसरों को प्रसन्न करने के लिये क्यों परेशान होता है? तू जरा अपनी आत्मा को भी तो प्रसन्न कर। ऐसा करने से पौद्गलिक सम्पत्ति की तो बात ही क्या, परमज्योति पर भी तेरा विशाल साम्राज्य स्थापित हो जायेगा। ...कहने का तात्पर्य यह है कि परोपासना को त्यागकर आत्मा जब आत्मोपासना में तल्लीन होता है, तभी उसे आत्मिक तेज की प्राप्ति होती है और तभी उसमें उन्मनी-भाव जाग्रत होता है, अतः साधक को अपनी आत्मा की साधना करना चाहिए और सदा आत्म-ज्योति को जगाने का प्रयत्न करना चाहिए। ध्यान योगी गोरखनाथ द्वारा प्रणीत अमनस्क भाव से सम्बन्धित अमनस्क योग ग्रन्थ के उत्तरार्द्ध में कायोत्सर्ग को पुष्ट करने वाले श्लाकों में भी कहा हैअभ्यस्तैः किमुदीर्घकालममलैाषिप्रदैर्दुष्करैः । प्राणायामशतैरनेककरपोर्दुःखात्मकैदुर्जयैः। यस्मिन्नभ्युदिते विनश्यति बली वायुः स्वयं तत्क्षणात् प्राप्त्यैतत्सर्ज स्वभावनिशं सेवध्वमेकं गुरुम्॥ विविध व्याधियाँ उत्पन्न करने वाले, बड़ी कठिनाई से करने योग्य, दुःख रूप, दुर्जय तथा अनेक साधनों से सम्पन्न होने वाले सैकड़ों प्राणायामों के सुदीर्घ काल तक अभ्यास करने से क्या लाभ? जिसके उदित होने पर बलवती वायु स्वयं तत्क्षण विनष्ट हो जाती है; उसी सहज स्वभावभूत अमनस्क की प्राप्ति के लिए निरन्तर एकमात्र गुरू की सेवा करो।। दृष्टिः स्थिरा यस्य बिनैव दृश्यं, वायुः स्थिरौ यस्य विना प्रयत्नम्। चित्तं स्थिरं यस्य विनावलम्बं, स एव योगी स गुरुः स सेव्यः॥ 52 कायोत्सर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001217
Book TitleKayotsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size7 MB
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