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________________ देह, शरीर, तन काया के ही पर्यायवाची शब्द हैं। वर्तमान में भाषा में काया के स्थान पर देह तथा शरीर शब्द का अधिक प्रयोग होता है। इस दृष्टि से 'कायोत्सर्ग' का अर्थ हुआ देह का उत्सर्ग, शरीर का उत्सर्ग। जीव का सबसे अधिक घनिष्ठ सम्बन्ध देह (काया) से है। इन्द्रिय, मन, बुद्धि, देह के ही अंग हैं। देह से भिन्न इनका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। इसलिये देहान्त होते ही इनका भी अन्त हो जाता है। श्रौत्र, चक्षु, घ्राण, रसना, स्पर्शनं इन्द्रियाँ एवं मन जब अपने विषयों में प्रवृत्ति करते हैं, तब इनका वस्तुओं से अर्थात् संसार से सम्बन्ध होता है। इस प्रकार शरीर का वस्तुओं से, संसार से सम्बन्ध स्थापित होता है। अतः शरीर, इन्द्रियाँ, मन तथा इनके विषय-वस्तुएँ एवं संसार, इन सबमें जातीय एकता है। ये सब एक ही जाति 'पुद्गल' के रूप हैं। पुद्गल उसे कहते हैं जिसमें जल के बुदबुदे की तरह उत्पत्ति और विनाश हो, जो क्षणभंगुर हैं। विनाशी होने से देह से सम्बन्धित इन्द्रियाँ, मन, विषय एवं संसार की समस्त दृश्यमान वस्तुएँ नश्वर, परिवर्तनशील, अनित्य, अध्रुव, क्षणभगुर हैं और एक ही जाति की हैं। इनका परस्पर में घनिष्ठ सम्बन्ध है। इनमें जातीय एकता है, प्रवृत्ति की भिन्नता है। परन्तु देह में निवास करने वाली आत्मा, जो इन सबकी परिवर्तनशीलता व नश्वरता की ज्ञाता है, वह अपरिवर्तनशील, अविनाशी, ध्रुव व नित्य है। इस प्रकार शरीर और संसार के समस्त पदार्थ विनाशी होने से अविनाशी आत्मा से भिन्न स्वभाव वाले हैं। इन पदार्थों की आधीनता ही पराधीनता है। आत्मा देह से दो प्रकार का सम्बन्ध स्थापित करती है-भेद-भाव का तथा अभेद-भाव का। मेरी देह है, मेरी इन्द्रियाँ हैं-ऐसा ममता रूप सम्बन्ध स्वीकार करना भेदभाव का सम्बन्ध है। मैं देह हैं, देह का अस्तित्व ही मेरा अस्तित्व है। देह में ऐसा अहंभाव, अहंकार, तादात्म्य होना अभेद-भाव का सम्बन्ध है। 'मैं' (अहन्ता) अभेद-भाव के सम्बन्ध का और 'मेरापन' (ममता) भेद-भाव के सम्बन्ध का द्योतक है। देह या शरीर संसार की जाति का होने से संसार का ही अंग है, अतः देह से सम्बन्ध स्थापित करते ही संसार से सम्बन्ध हो जाता है। यह नियम है कि जिससे सम्बन्ध हो जाता है उससे जुड़ाव (Attachment) हो जाता है। जुड़ाव होना, अर्थात् किसी से जुड़ना ही उससे बँधना है। सम्बन्ध शब्द बना ही 'बन्ध' शब्द से है। इन्द्रियाँ देह का अंग हैं। अतः देह से सम्बन्ध होने से इन्द्रियों से सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। इन्द्रियों का कार्य शब्द-रूप आदि विषयों में प्रवृत्ति व कर्म करना है। विषयों का सम्बन्ध वस्तुओं से है और वस्तुओं का कायोत्सर्ग व व्युत्सर्ग 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001217
Book TitleKayotsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size7 MB
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