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करता हूँ, त्याग करता हूँ और अपने को पापकारी क्रियाओं से अलग (असंग) करता हूँ।"
इसके पश्चात् 'चत्तारि सरणं पवज्जामि, अरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि, धम्म सरणं पवज्जामि' यह पाठ तीन बार बोलें। फिर प्रतिक्रमण सूत्र पाठ बोलें। ऊपर सामायिक सूत्र में समत्व में स्थिर रहने के लिये प्रतिक्रमण की प्रतिज्ञा की गई, कारण कि प्रतिक्रमण द्वारा पापों से मुँह मोड़े (विमुख हुए) बिना कायोत्सर्ग साधना संभव नहीं है। अतः इसके लिये प्रतिक्रमण सूत्र का विधान है, जिसका भावार्थ है : ___ 'मैं प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ। मैंने दिन में जो कायिक, वाचिक तथा मानसिक अतिचार (दोष) किए हों, जो सूत्र से, मार्ग से, आचार से विरुद्ध हैं, नहीं करने योग्य हैं, दुर्ध्यान रूप हैं, अनिष्ट व अनाचरणीय हैं, साधु के लिये अनुचित हैं, इन अतिचारों से तीन गुप्ति, चार कषायों की निवृत्ति, पाँच महाव्रत, छह जीव निकायों की रक्षा, सात पिण्डैषणा, आठ प्रवचन माता, नौ ब्रह्मचर्य, गुप्ति, दशविध श्रमण धर्म-संबंधी कर्तव्य खण्डित हुए हों अथवा विराधित हुए हों तो वे सब पाप मेरे लिए मिथ्या, निष्फल हों।'
इसके पश्चात् कायोत्सर्ग के विधान का सूत्र पाठ है, जिसका भावार्थ निम्न प्रकार है। यथा- तस्सउत्तरिकरणेणं........ताव कायं ठाणेणं ।
___'आत्मा की उत्कृष्टता श्रेष्ठता के लिये, दोषों के प्रायश्चित्त के लिये, विशेष शुद्धि करने के लिये, शल्य रहित होने के लिये, पापकर्मों का पूर्णतया विनाश करने के लिये मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। कायोत्सर्ग में श्वासोच्छ्वास, खाँसी, छींक, जंभाई, डकार, अपानवायु, चक्कर, पित्त की मूर्छा, अंग, कफ व दृष्टि के सूक्ष्म संचार से, अर्थात् शारीरिक क्रियाओं के अशक्य परिहार के अतिरिक्त काया के व्यापारों से निश्चल व स्थिर रहकर, वाणी से मौन रहकर, मन से ध्यानस्थ होकर अपने को शरीर से परे करता हूँ।'
यहाँ हमें स्मरण रखना चाहिए कि 'अप्पाणं वोसिरामि' का अर्थ आत्मा का विसर्जन करना नहीं है, अपितु देह के प्रति अपनेपन के भाव का विसर्जन करना है, क्योंकि विसर्जन व परित्याग आत्मा का नहीं, अपनेपन के भाव अर्थात् ममत्व बुद्धि का होता है। जब कायिक, वाचिक और मानसिक क्रियाओं पर पूर्ण नियन्त्रण स्थापित हो जाता है, तभी ध्यान की सिद्धि होती है और जब ध्यान सिद्ध हो जाता है तो आत्मा अयोग दशा अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। अतः यह स्पष्ट है कि ध्यान मोक्ष का अन्यतम कारण है। (आवश्यक सूत्रआगार सूत्र (श्रमणसूत्र-अमरमुनि), प्र.सं., पृष्ठ 376) 24 कायोत्सर्ग
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