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________________ कायोत्सर्ग व व्युत्सर्ग ध्यान की चरम स्थिति व फल कायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग का अर्थ हैकाया का उत्सर्ग करना, देहातीत अवस्था का अनुभव करना। अनुयोगद्वार सूत्र में कायोत्सर्ग को 'व्रण-चिकित्सा' कहा है, जो उपयुक्त ही है, क्योंकि भोगासक्ति, मोह, असंयम आदि दोषों के कारण आत्मा के ज्ञान-दर्शन-चारित्र गुणों के घात करने रूप घाव हो जाते हैं। उन घावों का उपचार (चिकित्सा) कायोत्सर्ग है। साधक के आत्मिक गुणों के घात (घाव) को जैनागमों में अतिचार कहा है। इन अतिचारों के विशोधन के लिये ही कायोत्सर्ग का विधान है, जैसा कि आवश्यक सूत्र के पाँचवें आवश्यक कायोत्सर्ग के प्रतिज्ञा पाठ में कहा है : आवस्सं ही इच्छाकारेणं संदिसह भगवं! देवसिय पडिक्कमणं ठाएमि देवसिय-णाण-दसण-चरित्त-तव-अइयार विसोहणजें करेमि काउसग्गं। अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के अतिचारों के विशोधनार्थ कायोत्सर्ग करता हूँ। अतिचारों से रहित होना, निर्दोष होना है। इस प्रतिज्ञा पाठ के पश्चात् सामायिक सूत्र (करेमि भंते का पाठ), प्रतिक्रमण सूत्र (इच्छामि ठामि काउसग्गं का पाठ) तथा कायोत्सर्ग सूत्र (तस्स उत्तरीकरणेणं का पाठ) बोले जाते हैं, जो कायोत्सर्ग (देहातीत होने) के लिये साधन रूप हैं। __कायोत्सर्ग अर्थात् देहातीत अवस्था का अनुभव करने के लिये अंतर्मुखी होना और बहिर्मुखी प्रवृत्ति रहित होना आवश्यक है। बहिर्मुख वह ही होता है, जिसकी मन, वचन व शरीर की क्रियाएँ बहिर्गमन कर रही हैं। इसे आगम में सावध योग कहा है। सावध योग में कर्तृत्व, भोक्तृत्व (फलाकांक्षा) भाव होने से राग-द्वेष उत्पन्न होता है, जिससे समत्वभाव भंग होता है। समत्व के अभाव में कोई भी साधना व चारित्र संभव नहीं है। अतः 'करेमि भंते' के पाठ से समत्व को ग्रहण करने के लिये सावध योग का त्याग किया जाता है। इसे ही सामायिक चारित्र कहा है। पाठ का भावार्थ है : "हे भगवन् ! मैं पापकारी सावध प्रवृत्तियों (क्रियाओं) को त्यागकर सामायिक (समत्व) ग्रहण करता हूँ। मैं मन, वचन और शरीर से पापकर्म न स्वयं करूँगा, न दूसरों से कराऊँगा और न पापकर्म करते हुए को भला मानूँगा । हे भगवन् ! मैं पापकर्मों का प्रतिक्रमण करता हूँ, निंदा कायोत्सर्ग व व्युत्सर्ग 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001217
Book TitleKayotsarga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size7 MB
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